यु॒वं वस्त्रा॑णि पीव॒सा व॑साथे यु॒वोरच्छि॑द्रा॒ मन्त॑वो ह॒ सर्गा॑:। अवा॑तिरत॒मनृ॑तानि॒ विश्व॑ ऋ॒तेन॑ मित्रावरुणा सचेथे ॥
yuvaṁ vastrāṇi pīvasā vasāthe yuvor acchidrā mantavo ha sargāḥ | avātiratam anṛtāni viśva ṛtena mitrāvaruṇā sacethe ||
यु॒वम्। वस्त्रा॑णि। पी॒व॒सा। व॒सा॒थे॒ इति॑। यु॒वोः। अच्छि॑द्राः। मन्त॑वः। ह॒। सर्गाः॑। अव॑। अ॒ति॒र॒त॒म्। अनृ॑तानि। विश्वा॑। ऋ॒तेन॑। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। स॒चे॒थे॒ इति॑ ॥ १.१५२.१
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब एकसौ बावनवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में पढ़ाने, पढ़ने और उपदेश करने, उपदेश सुननेवालों के विषय को कहते हैं ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाध्यापकाध्याप्योपदेशकोपदेश्यविषयमाह ।
हे मित्रावरुणा यौ युवां पीवसा वस्त्राणि वसाथे ययोर्युवोरच्छिद्रा मन्तवो ह सर्गास्सन्ति यौ युवां विश्वाऽनृतान्यवातिरतमृतेन सचेथे तावस्माभिः कुतो न सत्कर्त्तव्यौ भवथः ॥ १ ॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अध्यापक व उपदेशक तसेच त्यांच्या शिष्यांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥